Tuesday, February 21, 2017

रंगमंच के पुरोधा भूपेश जोशी की संघर्ष 'गाथा'

‘ग्राउंड ज़ीरो’ के चौथे एपिसोड में पढ़िए जाने-माने रंगकर्मी और अभिनेता भूपेश जोशी की कहानी । ‘’मुश्किलों से जो डरते हैं, जलीले खार होते हैं, बदल दे वक्त की तक़दीर वो खुद्दार होते हैं’’ । किसी की कही ये पंक्तियां भूपेश पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं। क्योंकि रंगमंच के पीछे की सारी पीड़ाओं से अगर किसी इंसान को एक साथ गुज़रना पड़े तो वह घनघोर हताशा से घिर जाएगा। उसे लगेगा मानो वह पूरी तरह से आग की लपटों से घिर चुका है। लेकिन इन्हीं तपती लपटों में तपकर रंगमंच का एक हीरा हम सब के बीच मौजूद है जिनका नाम है भूपेश जोशी। भूपेश का रंगमंचीय सफर युवा रंगकर्मियों और अभिनेताओं को न सिर्फ मोटिवेट करता है बल्कि इस बात को भी पुख्ता करता है कि सच्चे दिल से कुछ भी करना चाहो तो सारी कायनात भी आपकी मदद करने के लिए उतावली हो जाती है। रंगमंच की दुनिया में भूपेश किसी परिचय के मोहताज नहीं। अभिनेता के रूप में 60 से ज्यादा नाटकों के 500 शो, निर्देशक के रूप में 25 से ज्यादा नाटकों का निर्देशन, अभिनय टीचर के रूप में 300 से ज्यादा प्रशिक्षुओं को प्रशिक्षित कर चुके हैं । ये आंकड़ें उनके अभिनय की दुनिया में धाकड़ होने की गवाही ज़रूर देते हैं लेकिन सफलता के इस मुकाम के पीछे छिपी है पिछले 24 सालों की एक ऐसी यात्रा  जिसके ऊबड़-खाबड़ रास्ते में मुसीबतों की अनगिनत ठोकरें भी भूपेश के फौलादी इरादों को डिगा न पाई। पिथौरागढ़ की गलियों में होने वाली रामलीला से लेकर भारतेंदु नाट्य एकेडमी, लखनऊ और फिर दिल्ली के श्रीराम सेंटर तक का सफर । रंगमंच के इस संसार में खुद को साबित करने के लिए उन्हें तक़दीर और तदबीर के कई आयामों से होकर गुज़रना पड़ा है । घरवालों ने भूपेश को कभी इंजीनियर बनाने का ख्वाब देखा था क्योंकि उन्हें इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि आखिर रंगमंच किस चिड़िया का नाम है । लेकिन भूपेश ने रंगमंचरूपी चिड़िया के पर तो बहुत पहले ही गिन लिए थे । उनकी आत्मा तो सिर्फ अभिनय में बसती थी । एक तरफ घरवालों का विरोध तो दूसरी तरफ भूपेश का एक्टिंग को लेकर जुनून । जाहिर सी बात है इसे लेकर तलवारें खिंचना लाजिमी थीं । तमाम परेशानियों के बावजूद अभिनय के प्रति भूपेश की दीवानगी दिनोंदिन हद के करीब पहुंचती गई। आखिरकार घरवालों ने भी भूपेश की नीतियों को नियति मान लिया। और फिर शुरु हो गया अभिनय का अनवरत सिलसिला। आखिर कैसे भूपेश ने अपनी जिद से रंगमंच की एबीसीडी भी न जानने वाले आदिवासियों के इलाकों में भी रंगमंच को आंदोलन पैदा करने वाली कार्यशाला में तब्दील कर दिया ? आखिर क्यों अपनी सगी बहन की शादी जैसे पावन मौके पर भी भूपेश शरीक न हो पाए, जिससे घरवाले आगबबूला हो गए । इन सब सवालों का जवाब जानने के लिए आपको ये पूरा इंटरव्यू पढ़ना होगा । क्योंकि ‘ग्राउंड ज़ीरो’ ने की है रंगमंच के इस पुरोधा की बारीकी से तहक़ीकात ।

सवाल- सबसे पहले आप अपने बारे में बताइए ।

जवाब- मेरा नाम भूपेश जोशी है। मूलरूप से पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट के एक छोटे से गांव चहज का रहने वाला हूं।

सवाल- शुरुआती पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई ?

जवाब- गवर्नमेंट इंटर कॉलेज, चहज से ही हाईस्कूल और इंटमीडियट कंपलीट किया । आगे की पढ़ाई के लिए पीजी कॉलेज, पिथौरागढ़ में दाखिला लिया ।


सवाल- आपको ये कब और कैसे पता लगा कि अभिनय नाम की कोई चीज भी होती है , फिर धीरे-धीरे उसके लिए इच्छा पैदा होन लगी हो ?

जवाब- स्कूल के शुरुआती दिनों में ये तो मैं बिल्कुल नहीं जानता था कि अभिनय किस चिड़िया का नाम है। न कभी इससे पाला पड़ा था । लेकिन जैसे- जैसे हाईस्कूल हुआ फिर इंटरमीडियट में पहुंचा, मानसिक स्तर बढ़ा तो पहला परिचय रामलीला से हुआ । हर साल हमारे गांव में रामलीला का आयोजन होता था। धीरे-धीरे रामलीला को लेकर लगाव बढ़ता गया । फिर छोटे-छोटे रोल मिलने लगे। यहां से दिमाग में ये चीज आने लगी कि ये जो हम कर रहे हैं इसे ही अभिनय कहा जाता है।

सवाल- रामलीला से अभिनय की शुरुआत तो हो गई लेकिन अभिनय को लेकर अब अगला पड़ाव क्या था ?

जवाब- पीजी कॉलेज, पिथौरागढ़ में एडमिशन लिया तो वहां की ड्रामा सोसायटी ‘थात’ के बारे में पता चला। ड्रामा डिपार्टमेंट के हेड डॉ. मृगेश पांडे से परिचय हुआ। इसके अलावा सतीश जोशी और निर्मल शाह से भी मुलाकात हुई जो कि इसी ड्रामा सोसायटी से जुड़े थे । ‘थात’ संस्था से जुड़कर इन लोगों के मार्गदर्शन में पढ़ाई के साथ-साथ नाटकों में पार्टिसिपेट करना लगा।लगातार काम करता रहा । बात सन् 1993 की है जब इसी संस्था की तरफ से मुझे पहली बार किसी बड़े नाटक में मेन रोल करने का मौका मिला । नाटक का नाम था ‘राजकुंवर’ जिसमें मैं ने एक फौजी का किरदार निभाया । शरदोत्सव समारोह में नाटक का मंचन हुआ जिसे दर्शकों ने खूब सराहा । वहां से मेरा आत्मविश्वास और बढ़ने लगा ।

सवाल- शायद अभी तक कहीं-न-कहीं आप करियर को लेकर दोराहे पर खड़े थे क्योंकि कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ नाटकों में रोल कर रहे थे ?  आपको कब लगा कि अब मेरी मंजिल सिर्फ अभिनय होगी ?

जवाब- कॉलेज पूरा होने के बाद पिथौरागढ़ में कई सालों तक नाटक करता रहा । इस दौरान कई नुक्कड़ नाटक भी किए । उस दौरान ‘उत्तरायणी’ और ‘वेदना’ इन दो नाटकों ने बड़ी ख्याति दिलाई । ‘वेदना’ में ‘हरदा शास्त्री’ का रोल मेरे लिए माइलस्टोन साबित हुआ । जहां से अब मेरे दिल ने गवाही दे दी कि अब तो मेरी मजिल सिर्फ अभिनय होगी। संयोग की बात देखिए उन्हीं दिनों सन् 1996 में पिथौरागढ़ में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) की वर्कशॉप लगी। वर्कशॉप की पूरी जिम्मेदारी रामगोपाल बजाज और देवेंद्र राज अंकुर के कंधों पर थी।मैं ने वर्कशॉप में हिस्सा ले लिया । सुबह 8 बजे लेकर रात 8 बजे तक, 12-12 घंटे हम लोग अभिनय की बारीकियां सीखते । वाइस मॉड्यूलेशन, फेशियल एक्सप्रेशन, रीडिंग, केरेक्टराइजेशन पर काम करते । इस वर्कशॉप में मनोहर श्याम जोशी का लिखा हुआ नाटक ‘कसप’ तैयार हुआ । जिसमें मैंने ‘बब्बन’ का रोल किया। लोगों ने खूब सराहा ।


सवाल- नाटकों में काम करने को लेकर घरवालों का क्या रिएक्शन था ?

जवाब- मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता हूं। मेरे से पहले मेरे परिवार में इस तरह की एक्टिविटीज न किसी ने की थी और न ही मेरे अलावा कोई कर रहा है । उन लोगों का अभिनय या रंगमंच से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं था । पिताजी अध्यापक थे। वो चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं लेकिन मुझे एक्टिंग में मजा आता था। इसीलिए विरोध होना लाजिमी था सो हुआ । घरवाले नहीं चाहते थे मैं ड्रामा या नौटंकी करूं । मनमुटाव का आलम ये हो जाता था कि कई दिनों तक घरवालों से बात तक नहीं होती थी।

सवाल- भारतेंदु नाट्य एकेडमी (लखनऊ) जो कि आपकी मातृसंस्था है, जहां से आपने सही मायने में अभिनय की बारीकियां सीखीं। एक्टिंग के इतने रेप्यूटेड संस्थान में एडमिशन कैसे  मिला ?

जवाब- पिथौरागढ़ में लगभग 4-5 सालों में कई बड़े नाटक कर लिए थे। पढ़ाई पूरी हो चुकी थी । करियर को लेकर घरवालों का दबाव था । इस दौरान एक बड़ा इंट्रस्ट्रिंग वाकया हुआ । मैं ने सोचा नाटक करने के साथ क्यों न कोई छोटा-मोटा कोई कोर्स कर लिया जाए। घर के पास ही मैं ने एक कंप्यूटर का कोर्स करना शुरु कर दिया ।अभी कुछ ही दिन हुए थे कि कंप्यूटर सिखाने वाले को पता चला कि मैं नाटकों में भी काम करता हूं। उसने कहा तुम कंप्यूटर सीखना छोड़ो मैं कुछ स्टूडेंट्स का जुगाड़ करता हूं तुम उन्हें ट्रेंड करो और नाटक करो। मैं राजी हो गया । 20 से 25 की तादाद में स्टूडेंट्स इकट्ठा हो गए । नाटक तैयार हुआ उसका शानदार तरीके से मंचन हुआ । सन् 1997 में राष्ट्रय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) और भारतेंदु नाट्य एकेडमी दोनों के लिए एप्लाई किया । एनएसडी में सिलेक्शन नहीं हुआ लेकिन भारतेंदु नाट्य एकेडमी में एडमिशन मिल गया।

सवाल- अब तक आप शौकिया थियेटर करते थे लेकिन बीएनए में एडमिशन के बाद अब आपको एक कोर्स के रूप में बाकायदा एक्टिंग की पढ़ाई करनी थी । जहां आपको अभिनय की बारीकियां सिखाने वाले दिग्गज भी मिले होंगे । क्योंकि कहीं-न-कहीं अब आप एक्टिंग को ही करियर के रूप में देख रहे थे । बीएनए में आने से पहले और बीएनए में आने के बाद दोनों के बीच का जो अंतर था उसे कैसे एडजस्ट किया आपने ?

जवाब- जी बिल्कुल अब हमें रंगमंच का विधिवत नॉलेज लेना था । जिसमें थ्योरी और प्रैक्टिकल दोनों शामिल था । बीएनए में बीएम शाह, मोहन महर्षि, जुगल किशोर, हेमेंद्र भाटिया, उर्मिल थपलियाल, सी आर जांबे, अनामिका हक्सर ये सभी लोग हमारे एक्टिंग के गुरु होते थे। जो अभिनय निखारने के लिए छोटी-छोटी चीजों पर काम करवाते थे। मुझे स्टेज पर चरित्र को निभाने में हमेशा मजा आता था इसलिए ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। कई बार कोई रोल ठीक से नहीं होता था तो निराश ज़रूर हो जाता था लेकिन एक कलाकार होने के नाते रोल को लेकर हमेशा मन में लालच होता था कि अगर ये ठीक से नहीं हुआ तो रोल हाथ से चला जाएगा। इसलिए जी तोड़ मेहनत करते थे । अनामिका हक्सर की एक्टिंग क्लास का बेसब्री से इंतजार रहता था क्योंकि वो हमेशा कुछ नया टास्क करवाती थीं जो कि चैलेंजिंग होता था ।

सवाल- बीएनए से 2 साल का पीजी कोर्स पूरा होने के बाद क्या रणनीति रही आपकी ?

जवाब- कोर्स पूरा होने के बाद स्कॉलरशिप मिलनी बंद हो गई । खर्चे के लिए पूरी तरह से घरवालों पर निर्भर था । अब मेरे सामने दो विकल्प थे । या तो मैं बीएनए की रेपेटरी कंपनी ज्वाइन कर लूं जिसके बदले मुझे हर महीने पारिश्रमिक मिलता या फिर उस दौरान एक स्कीम के तहत आदिवासी इलाकों में जाकर थियेटर को बढ़ावा देना था लेकिन इसके बदले कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता । मैं ने रेपेटरी कंपनी का मोह छोड़कर दूसरे वाले विकल्प को चुना क्योंकि ये मुझे ज्यादा चैलेंजिंग काम लगा ।

सवाल- आदिवासी इलाके में जाकर आदिवासियों के साथ थियेटर करना, उसको बढ़ावा देना कितना मुश्किल भरा काम रहा ?

जवाब- इस स्कीम के तहत हमें बुंदेलखंड के ललितपुर जिले के एक बीहड़ इलाके में भेजा गया । मैं और मेरे साथ मेरे एक सीनियर प्रणवीर सिंह थे । पहली बार जब आदिवासी इलाके में पहुंचे तो आदिवासियों का संघर्षपूर्ण जीवन देखकर हम अंदर तक हिल गए । बच्चों को अच्छी तालीम देना तो बहुत दूर की बात थी महज दो जून की रोटी के लिए वो लोग तपती धूप में 18-18 घंटे काम करते थे । उनका शोषण किया जा रहा था । उन लोगों को लेकर रंगमंच करना और बढ़ावा देना और उनसे रंगमंच के बारे में बातचीत करना भैंस के आगे बीन बजाने जैसे था । क्योंकि उनमें से ज्यादतर अनपढ़ थे और जो शिक्षित भी थे आखिर उन्हें थियेटर जैसी विधा से क्या लेना देना । लेकिन हम लोगों ने हार नहीं मानी और साम-दाम, दंड-भेद सारे तरीके अपनाए । हमनें प्रण कर लिया कि अब आएं हैं तो नाटक तो करके ही जाएंगे । कड़ी मेहनत के बाद हम कुछ लोगों को मनाने में कामयाब हो गए और वो लोग भी हमारे साथ काम करने को राजी हो गए । लेकिन सबसे बड़ी समस्या आयी भाषा को लेकर। उन लोगों को हिंदी बिल्कुल भी नहीं आती थी । इसलिए हमनें नाटक का अनुवाद बुंदेलखंडी में कराया। नाटक के जरिए हमनें उनके अधिकारों की बात की। उनके शोषण के खिलाफ आवाज़ उठायी। और नाटक का टाइटल तैयार किया- ‘जब जगो तबे भुनसारो’ । नाटक की रिहर्सल के दौरान कई बार गांव के जमींदारों ने विरोध किया और नाटक रुकवा दिया। लेकिन जैसे-तैसे नाटक तैयार हुआ। पहला शो ललितपुर में हुआ । दूसरा शो लखनऊ में एक समारोह में हुआ जो कि हिट रहा । इत्तेफाक देखिए जिस दिन इस नाटक का मंचन होना था उसी दिन मेरी इकलौती सगी बहन की शादी थी । मैं चाहकर भी शादी में शरीक नहीं हो पाया । जिसे लेकर घरवालों से मनमुटाव बहुत ज्यादा हो गया था । लेकिन मैं मजबूर था क्या करता । क्योंकि मेरा शुरु से ही फलसफा रहा है चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन – शो मस्ट गो ऑन

सवाल- लखनऊ से दिल्ली पहुंचे तो श्रीराम सेंटर रंगमंडल से जुड़े, 11 सालों तक यहां की रेपेटरी में रहे, बड़ा लंबा वक्त बिताया आपने यहां पर ?

जवाब- आदिवासियों के साथ थियेटर करने के बाद मैं लखनऊ वापस आ गया। बीएनए रेपेटरी के लिए मैं पहले ही मना कर चुका था। अब मेरे पास कोई काम नहीं था और न ही आय का कोई स्रोत । मुफलिसी के इस दौर में बीएनए के ही ललित सिंह पोखरिया ने मेरी बड़ी मदद की । 6 महीने तक मैं उनके घर पर रहा । उनका भरपूर सपोर्ट मिला । जून 2000 में दिल्ली के श्रीराम सेंटर रेपेटरी में मेरा सिलेक्शन हो गया । अब मुझे दिल्ली में अपने आपको साबित करना था । क्योंकि दिल्ली एक तरीके से रंगमंच का गढ़ है । थियेटर के बड़े-बड़े दिग्गजों से सामना हुआ । मेहनत रंग लाई और SRC  रेपेटरी का मेरा पहला नाटक ‘कैपिटल एक्सप्रेस’ का मंचन हुआ । जिसे चितरंजन त्रिपाठी ने निर्देशित किया था। नाटक देखने के बाद लोगों ने कहा- हां दिल्ली में कोई एक्टर आया है ।


सवाल- SRC के कुछ बड़े निर्देशकों के नाम बताइए जिनके साथ आपने काम किया ?

जवाब- इनमें मुश्ताक काक, चितरंजन त्रिपाठी, अवतार साहनी, राजेंद्र नाथ, चेतन दातार, अनिरुद्ध खूटवार्ड, नौशाद मोहम्मद, रोविजिता गोगोई, उर्मिल थपलियाल, समीप सिंह, लईक हुसैन, बहरुल इस्लाम ।

सवाल- SRC  रेपेटरी के कुछ बड़े नाटकों के नाम बताइए जिनमें आपने अभिनय किया ?

जवाब- राम सजीवन की प्रेमकथा, आंखमिचौली, टीन की तलवार, मार्टीगाड़ी, कन्यादान, हयवदन, शोभायात्रा, डॉक्टर आप भी, मैं मंटो हूं, एक गधे की आत्मकथा, अरे- मायावी सरोवर, दिल्ली-6, मुझे अमृता चाहिए, जिस लाहौर नहीं देख्या, एक शाम स्मितापा के नाम, अलग-अलग कमरे, मांस का दरिया, बस दो चम्मच औरत, नंगे पांव के निशान आदि।

सवाल- अभिनय का इतना लंबा-चौड़ा तज़ुर्बा होने के बावजूद आप मायानगरी मुंबई क्यों नहीं गए ?  क्या फिल्मों की चकाचौंध आपको आकर्षित नहीं करती ?

जवाब- ऐसा नहीं है मैं ने बॉलीवुड की कई फिल्में की हैं, कई सीरियल्स किए। दिल्ली से ही मेरी कास्टिंग हो गई । लेकिन सच बताऊं रंगमंच छोड़कर मुंबई जाने का कभी ख्याल ही नहीं आया। अभिनय करना है वो मैं दिल्ली में रहकर भरपूर कर रहा हूं। मेरी आत्मा रंगमंच में बसती है, स्टेज में बसती है।

सवाल- कुछ फिल्मों और सीरियल्स के नाम बताइए जिनमें आपने अभिनय किया ?

जवाब- फिल्में हैं- पिंजर, अमल, चिंटू जी, किस्मत लव पैसा दिल्ली
सीरियल्स हैं- दहलीज (स्टार प्लस), तुम देना साथ मेरा, क्योंकि जीना इसी का नाम हैं, हवाएं आदि।

सवाल- आप दिल्ली में एक थियेटर ग्रुप भी चलाते हैं। जिसका नाम है ‘गाथा’। इसके बारे में बताइए।

जवाब- सन् 2004 में ये ग्रुप बनाया ‘GATHA’ जिसका पूरा नाम है ‘गढ़ ऑफ आर्ट्स थियेटर एंड ह्यूमन एक्विटीज’ । इसके जरिए उन रंगकर्मियों को प्लेटफॉर्म मुहैया कराना था जो रंगमंच करने के इच्छुक हैं और इस क्षेत्र में बिल्कुल नए हैं । इस ग्रुप के अब तक करीब 15 नाटकों का देश के कई बड़े शहरों में सफल मंचन हो चुका है । जिनमें ‘कगार की आग’, ‘चारूदत्त’, ‘डाकघर’, ‘नौटंकी राजा’, ‘अरे- मायावी सरोवर’, ‘इंद्रपुरी में हलचल’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ आदि हैं। इनमें से कई नाटकों को साहित्य कला परिषद की ओर से कई नाट्य समारोहों में सम्मानित भी किया जा चुका है । इस ग्रुप से तालीम लेकर अब तक करीब 150 युवा रंगकर्मी अलग-अलग जगहों पर रंगकर्म के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।


सवाल- हमनें सुना है आप बच्चों के लिए भी एक्टिंग की वर्कशॉप चलाते हैं ।

जवाब- ये श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स का वीकेंड कोर्स है जिसमें बच्चों को अभिनय का कोर्स कराया जाता है । ये पूरी तरीके से प्रोडक्शन ओरियंटेड कोर्स है। मेरी देखरेख में अब तक एक्टिंग के 10 बैच पास आउट हो चुके हैं ।

सवाल- पिछले दिनों आपका सोलो नाटक ‘मैं, अभिनेता और वो’ काफी चर्चित रहा जिसमें मुख्य भूमिका आपने खुद निभायी है। इसके बारे में बताइए ।

जवाब- इस नाटक के जरिए एक कलाकार के संघर्षपूर्ण जीवन का मर्म दर्शाया गया है। आखिर कलाकार को अपने लक्ष्य को पाने के लिए किन-किन विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है । साहित्य कला परिषद की ओर से इसका मंचन भरतमुनि नाट्य समारोह में करवाया गया ।


सवाल- इतनी उपलब्धियां मिलने के बाद अब घरवालों का क्या रवैया रहता है ?

जवाब- घरवालों ने सिर्फ शुरुआती दौर में विरोध ज़रूर किया था लेकिन जब उनको इस बात का अहसास हो गया कि मैं अपने फैसले से पीछे नहीं हटूंगा फिर उन्होंने भरपूर सहयोग किया।  माता और पिताजी ने मेरा हर कदम पर साथ दिया। अब सभी लोग खुश हैं।

सवाल- अगर कोई आपसे संपर्क करना चाहे तो कैसे जुड़े ?

जवाब- फेसबुक पर मैं BHUPESH JOSHI  के नाम से मौजूद हूं । कोई भी संपर्क कर सकता है ।

सवाल- ‘ग्राउंड ज़ीरो’ के बारे में क्या कहेंगे ?

जवाब- बहुत ही शानदार पहल है। भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ।
                                                                                                                   साभार- ग्राउंड ज़ीरो

(ग्राउंड ज़ीरो के अगले एपिसोड में पढ़िए मिसाल कायम करने वाले एक और धमाकेदार शख्स का इंटरव्यू, जो होगा हमारे और आपके बीच का )

(अगर आपके पास भी है किसी ऐसे शख्स की कहानी जिसने किया है सोचने पर मजबूर। वो आप खुद भी हो सकते हैं, आपका कोई जानने वाला हो सकता हैं, आपका कोई दोस्त या रिश्तेदार भी हो सकता है। तो आप हमें बताइए। हम करेंगे ‘ग्राउंड ज़ीरो’ से पड़ताल और छापेंगे उसकी मिसालभरी दास्तां। देखेंगे दुनिया उसकी नज़र से। )  

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Thursday, February 2, 2017

मीडिया से 'मिडवे' तक का सफर... जब किसी के सपने मर जाए...पढ़िए विनय पांडे की संघर्षभरी दास्तान

 ‘ग्राउंड ज़ीरो’ के तीसरे एपिसोड में पढ़िए विनय पांडे की कहानी ।  कहते हैं ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना’ लेकिन जब ये कहावत वाकई में किसी इंसान के लिए सच साबित हो जाए तो ज़रा सोचिए उस इंसान पर क्या बीतती होगी । आज हम आपको एक ऐसे ही शख्स से रूबरू करवाएंगे जिनके सपनों की उड़ान ने परवाज़ भरना शुरु तो किया लेकिन उसके मुकम्मल मंज़िल तक पहुंचने से पहले ही मजलूम वक्त ने बेरहमी से उसके पर कतर दिए । विनय पांडे उन्हीं लोगों में से एक हैं, जो दिल से पत्रकारिता करना चाहते थे। बाराबंकी के छोटे से कस्बे से दिल्ली आने का उनका एक ही मकसद था पत्रकार बनना । पढ़ाई करने के बाद मनपसंद फील्ड में काम भी मिल गया । पैशन को प्रोफेशन बनाया । सब कुछ सही चल रहा था लेकिन अचानक न जाने किसकी नज़र लगी कि तीन साल की नौकरी के बाद ही इस्तीफा देना पड़ा । उम्र के जिस पड़ाव पर लोग मंज़िलरूपी जीवन की बुनियाद रखना शुरु करते हैं उस उम्र में विनय को बोरिया-बिस्तर समेटकर अपने गांव लौटना पड़ा । विनय एक ऐसे धर्मसंकट में पड़ गए थे जहां पर डिसीजन लेना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था । एक तरफ विनय का करियर था जो अभी-अभी शुरु हुआ था और कच्ची कली की भांति जीवन की कोंपलों में से बाहर निकलकर विस्तार करने के लिए व्याकुल था तो दूसरी तरफ गांव में विनय के घर पर कुछ ऐसी विकट समस्याएं मुंह बाए खड़ी हो गई थीं जिनसे पार पाना विनय के लिए नामुमकिन हो रहा था । आखिर विनय के पिताजी ने ऐसी कौन सी गलती की कि बेटे को पसंदीदा करियर को ही दांव पर लगाना पड़ गया । आखिर ऐसी कौन सी सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए विनय ने अपने सपनों की बलि चढ़ा दी, और फिर शुरु हुआ मीडिया से ‘मिडवे’ तक का सफर । जानने के लिए पढ़िए ये पूरा इंटरव्यू । क्योंकि ‘ग्राउंड ज़ीरो’ ने की है पूरी पड़ताल

सवाल- सबसे पहले आप अपने बारे में बताइए ।

जवाब- मेरा नाम विनय पांडे है । प्यार से सब वीरु बुलाते हैं । मूलरूप से बाराबंकी के रामसनेहीघाट का रहने वाला हूं।

सवाल- पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई ?

जवाब- पटेल पंचायती इंटर कॉलेज से हाईस्कूल और सरस्वती विद्य़ा मंदिर बाराबंकी से इंटरमीडियट किया। लखनऊ यूनिवर्सिटी से हिस्ट्री और इंग्लिश में ग्रेजुएशन किया। नेशनल ब्रॉडकास्ट एकेडमी दिल्ली से मास कम्यूनिकेशन किया ।

सवाल- आपका सपना था एक बड़ा जर्नलिस्ट बनने का, जिसकी शुरुआत भी हुई लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए आपने ये फील्ड छोड़ दिया । लोग अपने सपनों को पूरा करने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देते हैं लेकिन आपको ऐसा क्या पाना था कि आपने अपने सपनों को ही दांव पर लगा दिया ? क्योंकि एक बार नौकरी पकड़ने के बाद लोगों के लिए इसे छोड़ना बड़ा मुश्किल होता है वो भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे फील्ड में । ऐसी भी क्या मजबूरी थी ?

जवाब- जब मैंने 2014 में नौकरी छोड़ी तो उसे लेकर भड़ास4मीडिया ने एक पोस्ट छापी कि ‘विनय पांडे ने मीडिया छोड़ शुरु किया ढाबा’। उस स्टोरी को पढ़कर लोगों को लगा कि मुझे मीडिया रास नहीं आया इसलिए उसने मीडिया को छोड़कर ढाबे का कारोबार शुरु किया । लेकिन सच बताऊं पत्रकारिता मेरा पहला प्यार है । ये सच है कि आज मीडिया की हालत दयनीय है लेकिन उसके बावजूद में डटे रहकर इसी क्षेत्र में कुछ करना चाहता था। क्योंकि ये मुझे दिल से अच्छा लगता था । लेकिन कुछ ऐसी पारिवारिक समस्याओं ने मुझे घेरा कि अपने करियर को ही दांव पर लगाना पड़ा।


सवाल- आखिर क्या थी वो मजबूरी जिसकी वजह से आपको दिल्ली छोड़कर बैक टू बाराबंकी जाना पड़ा ?

जवाब- घर पर खेतीबाड़ी काफी है, चाहता तो घर पर ही रहकर खेती करता तो भी आराम से गुजारा हो जाता लेकिन जुनून था पत्रकारिता करने का सो दिल्ली चला आया । मेरे पिता मेरे आदर्श हैं लेकिन उनकी एक बुराई हमारे ऊपर बहुत भारी पड़ गई । दरअसल उन्हें शराब पीने की बुरी लत है। जिसकी वजह से हमारे गांव की ज़मीन का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने औने-पौने दामों में बेच दिया और जो बची उसे पास के ही एक जानने वाले को (नाम का ज़िक्र नहीं करना चाहता) ढाबे के लिए एग्रीमेंट कर दी । ये बात पता चलते ही मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। दिनोंदिन चिंता खाए जा रही थी। पूरे इलाके, समाज और रिश्तेदारी में बदनामी हो रही थी सो अलग । आखिर हमारे पुरखों की ज़मीन हाथ से जो जा रही थी। ज़मीन हमारी माता है, हमारी पहचान है, हमारी जड़ है, जीविका और घर-परिवार चलाने का ज़रिया है । जब वो ही नहीं रहेगी तो आखिर हम लोग ज़िंदा कैसे रहेंगे । एक तरफ करियर के शुरुआती दौर में दिल्ली में संघर्ष तो दूसरी तरफ बाप-दादा की हाथ से निकलती ज़मीन को देखकर मेरी मानसिक स्थिति खराब सी हो गई । इस महासंकट से निकलना नामुमकिन हो रहा था। मैं बड़े धर्मसंकट में पड़ गया । आखिर क्या किया जाए । जब तक नौकरी नहीं मिली थी तो रिश्तेदार ताने मारते थे अब जब नौकरी मिली तो वही रिश्तेदार फिर ताने मारने लगे कि बताओ इधर घर लुट रहा है उधर बेटा दिल्ली में नौकरी कर रहा है । ये नहीं नौकरी छोड़ के पहले घर संभाले । काफी सोच विचार कर दिल पर पत्थर रखकर करियर को दांव पर लगाना पड़ा।


सवाल- कैसे आपने हालात पर काबू पाया ? क्या खोई हुई ज़मीन वापस लाने में सफल हुए  ?

जवाब- दिल्ली से गांव पहुंचा तो घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी । पिताजी सारी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ चुके थे । मैं अकेला और परेशानियां अनेक । या तो मैं भी सरेंडर कर देता या फिर उन परेशानियों का डटकर मुकाबला करता । सो मैंने हिम्मत जुटायी और लग गया उनसे दो-दो हाथ करने में। इतनी कम उम्र में परेशानियों का ऐसा पहाड़ देखकर दिल दहल जाता था । लेकिन मैं हार मानने वाला नहीं था । रात-दिन एक कर दिए मैंने अपनी खोई हुई ज़मीन वापस पाने के लिए । सबसे पहले ढाबे वाली ज़मीन को छुड़ाने की कोशिश में लग गया । एग्रीमेंट पूरा होने के बावजूद वो लोग ज़मीन छोड़ने को राजी नहीं थे । बाहुबली होने का पूरा फायदा उठाया उन्होंने । हमारी कोई गलती न होने के बावजूद उन लोगों ने ज़मीन वापस देने के लिए 25 लाख रुपए की डिमांड कर दी । 25 रुपए जुटाना मुश्किल था हमारे लिए उस वक्त भला 25 लाख कहां से लाते। लेकिन साम-दाम, दंड-भेद सारे तरीके अपनाकर पैसों का जुगाड़ किया। उन दिनों को यादकर मुझे आज भी सिहरन होती है । एक-एककर सारी खोई हुई जायदाद वापस ली । फिर खेती करना शुरु किया। धीरे-धीरे हालत सुधरने लगे । पिताजी को उनके खर्चे के लिए हर रोज 100 रुपया अलग से देने लग गया ।

सवाल- अब तो आपने अपना ढाबा भी शुरु कर लिया है जिसका नाम है ‘मिडवे’ । काफी बड़ी संख्या में वर्कर भी आपके ढाबे में काम करते हैं । जिनको मेहनताना भी आप देते हैं । जरा बताइए इस ढाबे के बारे में ।


जवाब – एग्रीमेंट वाली जो जमीन हमनें वापस ली वो कई सालों से खाली पड़ी हुई थी । उस पर खेती का काम नहीं हो रहा था । हाईवे के किनारे होने की वजह से हमनें सोचा क्यों न इस पर ढाबा खोला जाए । आइडिया सबको पसंद आया और हो गया काम शुरु । नाम दिया गया ‘मिडवे यात्री प्लाजा’ । ये ढाबा रामसनेहीघाट के पास हाईवे पर है । आप कभी भी आइए आपका स्वागत है । हमने परिवहन विभाग से बात की तो पांच साल के लिए हमारे इस ढ़ाबे को उत्तर प्रदेश सरकार ने अनुबंधित भी कर लिया है । फैजाबाद से लखनऊ जाने वाली सभी सरकारी बसें हमारे इस ढाबे पर रुकती हैं। हम बस के सभी स्टाफ को खाना खिलाते हैं और प्रति बस 25 रुपया सरकार को देते हैं । जो कि पिछले 2 सालों से चल रहा हैं । अगली प्लानिंग इसी ढाबे के बगल में मेरिजलॉन बनवाने की हैं ।

सवाल- इतना सब कुछ होने के बाद क्या आप पिताजी से नाराज हुए  ?

जवाब- नाराज होकर क्या करूंगा आखिर मेरे पिताजी हैं वो । बल्कि वो ही मेरे से नाराज रहते हैं । और उनकी ये नाराजगी तब से है जब वो चाहते थे कि मैं बीएससी की पढ़ाई करूं लेकिन मैने बीए किया। एक बार तो उन्होंने इतना डांटा कि मैं नाराज होकर 18 साल की उम्र में मुंबई भाग गया।

सवाल- शुरुआती दौर में आपने दिल्ली में किन-किन न्यूज़ चैनलों में काम किया ?

जवाब- मैंने mh1 न्यूज़, इंडिया न्यूज, समाचार प्लस, न्यूज़ एक्सप्रेस में काम किया ।

सवाल- कुछ ऐसे लोगों के नाम बताइए जिन्होंने इस मुसीबत के दौरान आपकी सहायता की हो । आर्थिक रुप से न सही लेकिन मानसिक रुप से समझाया-बुझाया हो । आपके इस फैसले में आपके साथ रहे हो ।

जवाब- दिल्ली में पत्रकारिता करने के दौरान जिन लोगों ने मुझे सपोर्ट किया उनमें निखिल कुमार दूबे, आज तक के अनिल सिंह, इसके अलावा अतुल अग्रवाल और अमित सिंह ने बड़ी सहायता की । निखिल सर हर फैसले में मेरे साथ खड़े थे। हमेशा मार्गदर्शक की तरह काम किया ।

सवाल- मौका मिला तो क्या दोबारा मीडिया में आना चाहेंगे  ?

जवाब- बिल्कुल, भला ये भी कोई पूछने की बात है । आखिर पत्रकारिता मेरा पहला प्यार है । मैं कुछ भी हासिल कर लूं, कितना भी सफल क्यों न बन जाऊं लेकिन पत्रकारिता के बिना जीवन अधूरा है ।

सवाल- अगर कोई आपसे जुड़ना चाहे तो कैसे संपर्क कर सकता है ?


जवाब- मेरी ई-मेल आईडी vinay.panday1089@gmail.com के जरिए संपर्क कर सकता है ।

सवाल- ‘ग्राउंड ज़ीरो’ के बारे में क्या कहना चाहेंगे ?

जवाब- बहुत अच्छी पहल है जो आप लोग ऐसे लोगों की कहानियों को छाप रहे हैं, जिनके बारे में लोग नहीं जानते हैं लेकिन उनके बारे में जानना ज़रूरी है।  क्योंकि पता नहीं किस व्यक्ति के जीवन से किस को क्या सीख मिल जाए ।
                                                                                                             साभार- ग्राउंड ज़ीरो
(ग्राउंड ज़ीरो के अगले एपिसोड में पढ़िए मिसाल कायम करने वाले एक और धमाकेदार शख्स का इंटरव्यू, जो होगा हमारे और आपके बीच का )

(अगर आपके पास भी है किसी ऐसे शख्स की कहानी जिसने किया है सोचने पर मजबूर। वो आप खुद भी हो सकते हैं, आपका कोई जानने वाला हो सकता हैं, आपका कोई दोस्त या रिश्तेदार भी हो सकता है। तो आप हमें बताइए। हम करेंगे ‘ग्राउंड ज़ीरो’ से पड़ताल और छापेंगे उसकी मिसालभरी दास्तां। देखेंगे दुनिया उसकी नज़र से। )  

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